आहार मात्रा विचार

आहार सेवन करते समय आहार की गुणवत्ता के साथ-साथ आहार कितनी मात्रा में करना चाहिए इसका भी ध्यान रखना अति आवश्यक है l जिसे हम भरपेट भोजन करना कहते हैं (जैसे मानों कि और अधिक खाने की जगह ही नहीं बची) उतनी मात्रा में भी भोजन नहीं करना चाहिए और इतनी कम मात्रा में भी भोजन नहीं करना चाहिए कि शरीर को आवश्यक पोषण ही न मिले l भोजन उतनी ही मात्रा में करना चाहिए जिससे पेट में कुछ जगह खाली रहे जिससे पाचन की प्रक्रिया सुचारु रूप से हो सके । भरपेट भोजन करने की क्षमता से एक तिहाई भोजन कम करना चाहिए । शेष दो तिहाई हिस्सा भर भोजन का सेवन करना चाहिए l उस दो तिहाई भोजन में से भी लगभग आधा भोजन ठोस स्वरूप का जैसे रोटी, चावल, दलिया, पराठे, सब्जी इत्यादि होना चाहिए तथा शेष आधा द्रव स्वरूप का जैसे दाल, दूध, रस, पानी इत्यादि होना चाहिए l संक्षेप में अपनी आमाशय की क्षमता का अंदाजा लगाते उसके तीन समान हिस्सों की कल्पना करते हुये उसका एक भाग ठोस आहार द्रव्य, एक भाग द्रव -आहार (जैसे दाल, दूध, रस, पानी इत्यादि) सेवन करना चाहिए तथा एक भाग दोषों (वात,पित्त तथा कफ) की गति के लिए खाली रखना चाहिए l अब प्रश्न यह उठता है कि कोई व्यक्ति यह कैसे पता करे कि उसके द्वारा ग्रहण किया गया आहार मात्रावत् है या मात्रा से कम या अधिक है ? आयुर्वेद में इन सबके लक्षणों का विशेष रूप से वर्णन किया गया है जो निम्न प्रकार से है:


मात्रापूर्वक (सम्यक मात्रा) आहार के लक्षण:

जिस मात्रा में आहार के सेवन के पश्चात उदर (पेट) पर कोई दबाव न पड़े, हृदय की गति में कोई रुकावट न हो, पसलियों में फटने जैसी पीड़ा न हो, पेट में अधिक भारीपन न महसूस हो, भूख-प्यास की शांति हो जाये, सभी इन्द्रियां तृप्त हो जाये, उठने, बैठने, लेटने, गमन करने, श्वास लेने और बातचीत करने में कोई कष्ट न हो, आयु, बल, वर्ण और शरीर की वृद्धि हो और सुबह का किया भोजन शाम तक और शाम का किया भोजन सुबह तक पच जाए, उसे मात्रावत् आहार कहा जाता है l यदि इनमें से कोई भी परेशानी होती हो समझ लेना चाहिए कि मात्रा से अधिक या कम भोजन का सेवन किया जा रहा है l


हीन (कम) मात्रा में किये गए आहार के लक्षण:

हीन मात्रा में सेवन किया गया आहार शरीर, बल और वर्ण का क्षय करता है, तृप्ति नहीं होती है, मन, बुद्धि और इन्द्रियों को दुर्बल करने वाला होता है और वायु के विकारों की उत्पत्ति करता है l


अति मात्रा में किये गए आहार के लक्षण:

बहुत से लोगो की आदत होती है कि भरपेट आहार का सेवन कर लेने के बाद ऊपर से द्रव आहार (पानी, छाछ, लस्सी, जूस) का भी तृप्तिपूर्वक सेवन कर लेते हैं जिससे उनके पेट में थोड़ी सी भी जगह नहीं बचती है l ऐसे में भोजन को पचाने के लिए आवश्यक रसायनों (पाचक एंजाइम) के लिए भी जगह नहीं बचती है जिसके फलस्वरूप सेवन किये हुए आहार का सम्यक्  पचन नहीं हो पाता है l इसी को अतिमात्रा में भोजन करना कहते है l अतिमात्रा में सेवन किये हुए आहार से सभी दोषों का प्रकोप होता है और आहार भी अपक्व अवस्था में रह जाता है l कुपित हुए दोष उस अपक्व आहार को सहसा मुख मार्ग से या गुदा मार्ग से निकालते हुए अलग अलग रोगों की उत्पत्ति करते है l

यदि मनुष्य मात्रा का विचार करके आहार सेवन करता है तो वह हीनमात्रा या अतिमात्रा में सेवन आहार से उत्पन्न होने वाले रोगों से बच सकता है l इसलिए सदैव जागरूक रहकर मात्रवत् आहार का सेवन करना चाहिए ।

 

Dr. Amit Madan

dr.madan.amit@gmail.com